आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है
समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
युग निर्माण योजना मथुरा एवं प्रज्ञा अभियान शान्तिकुञ्ज हरिद्वार के संस्थापक-संचालक लाखों प्रज्ञा परिजनों के गुरु पूज्य पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते रहे हैं कि यदि उन्हें किसी महान मार्गदर्शक का अनुग्रह न मिला होता, तो वे उस स्थिति में न पहुँच सके होते, जिसमें कि पहुँच सकने में वे समर्थ हुए। उन्होंने अपने मार्गदर्शक पर समग्र श्रद्धा एकत्रित करके समर्पित की है। फलतः उदार अनुदानों की अमृत वर्षा होने लगी और उसका लाभ आरंभ से लेकर आज तक अनवरत एवं अविच्छिन्न क्रम से मिलता रहा। यदि इस स्तर पर शिष्य का श्रद्धा समर्पण न रहा होता, तो संभवतः अन्य अनेक चित्र पूजकों की तरह उनके पल्ले भी कुछ न पड़ा होता।
रामकृष्ण परमहंस के तथाकथित अगणित शिष्य थे। सभी को वे आशीर्वाद भी देते रहे, पर जिन्हें निहाल कर दिया, वे विवेकानन्द, बाह्मानन्द, प्रेमानन्द, शारदानन्द आदि थोड़े से ही साधक थे। कुछ के साथ पक्षपात, अन्यों के साथ उपेक्षा का आरोप यहाँ लागू नहीं होता। गड्डा जितना गहरा होता है उतना ही वर्षा का जल उसमें जमा हो जाता है। ऊंचे टीले और चट्टानों पर तो वर्षा का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे रूखे के रूखे, प्यासे के प्यासे ही रह जाते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में देवता की, सिद्ध पुरुषों की सामथ्र्य का जितना महत्व है, उससे अधिक शिष्य की श्रद्धा का है। द्रोणाचार्य को शरीर और मन समेत नौकर रख कर भी कौरव वह न सीख सके, जो एकलव्य ने दूर रहकर भी मिट्टी की प्रतिमा के माध्यम से उपलब्ध कर लिया था। यह श्रद्धा का ही चमत्कार है। आत्मिक प्रगति में इसको आधारभूत कारण माना गया है। मंत्र इसी के आधार पर फलित होते हैं। देवता इसी सीढ़ी के सहारे स्वर्ग से उतर कर साधक के जीवन में प्रवेश करते और कृत-कृत्य बनाते हैं। इस श्रद्धा को जो जिस मात्रा में जमा सका, समझना चाहिए कि उसके लिए अध्यात्म विभूतियाँ उपलब्ध करने का स्वनिर्मित राजमार्ग मिल गया। श्रद्धा विहीनों के द्वारा मंत्र को बकवास और देवता को खिलवाड़ से अधिक और कुछ नहीं समझा जा सकता। इसमें गुरु वरण का श्रद्धा-अभ्यास ही प्रथम सोपान है।
इस रहस्य को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने प्रबल प्रयत्न किए है। यहाँ तक कि गुरु की गोविन्द से भी बढ़कर माना है। उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपमा दी है। इतने पर भी क्यों उसके लिये उत्साह नहीं उठता ? इसका एक ही कारण है कि वैसे समर्थ व्यक्तित्वों का आज एक प्रकार से सर्वथा अभाव ही हो चला है, जिन्हें गुरु के रूप में वरण किया जा सके।
जिनकी जीवनचर्या में तपश्चर्या आदि से अन्त तक गुंथी नहीं, है, जिसके अध्ययन-अध्यवसाय की ज्ञान-सम्पदा अगाध नहीं है जो लोकमंगल के लिए आत्म-विजर्सन कर सकने में समर्थ नहीं हो सके जिनका चरित्र दूध जैसा धवल नहीं है, उनमें अपनी गाड़ी आप घसीट सकने तक की तो सामथ्र्य होती नहीं, अपने लिए जिस-तिस के सामने पल्लू पसारते फिरते हैं फिर वे अन्यान्यों की, शिष्यों की सहायता कर सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं ? ऐसों का आश्रय लेने पर लोभी गुरु लालची चेला वाली उक्ति ही चरितार्थ होती है और एक दूसरे को दोनों नरक में ठेलमठेला का फलितार्थ उत्पन्न करते हैं। जहाँ ऐसी स्थिति हो, वहाँ गुरुता के अभाव में शिष्य की श्रद्धा कैसे उमगे और घनिष्ठता स्थापित करने का सहारा और विश्वास किस आधार पर पनपे?
आज गुरु-शिष्य के क्षेत्र में असमर्थता और अश्रद्धा का बोल बाला है। "गुरुशिष्य अन्ध बधिर कर लेखा, एक न सुनइ, एक नहि देखा” की उक्ति ही इन दिनों चरितार्थ होती दिखती है। तथाकथित गुरु यह नहीं देखते कि शिष्य का जीवन किस दिशा की ओर जा रहा है और तथाकथित शिष्यों को गुरु के निर्देश सुनकर आचरण करने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती हैं। यही कारण है कि वह पुण्य-परम्परा धीरे धीरे लुप्त होती चली जा रही है। लकीर पीटने के लिए कहीं कुछ कर्मकाण्ड होते भी हैं तो उनके बीच वह निर्वाह बनता नहीं, जिसमें गुरु भी यशस्वी होते हैं एवं शिष्य भी मनस्वी बनते हैं। उस सुयोग के फलस्वरूप ही ऐसा वातावरण बन सकता है, जिससे समूचे वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का मलयानिल प्रवाहित होता रहे। इन दिनों मन्त्र और देवता, अपनी शक्ति खो चले हैं क्योंकि आध्यात्मिक प्रगति का कल्पवृक्ष, गुरुशिष्य परम्परा के आधार पर विनिर्मित होने वाली सिचाई से वंचित रहकर कुम्हलाता, मुरझाता और सूखता चला जा रहा है।
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- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान